भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका और पुलिस, दोनों ही व्यवस्था के दो मज़बूत स्तंभ हैं। एक ओर न्यायपालिका है, जो संविधान और कानून के अनुसार न्याय देने का काम करती है, वहीं दूसरी ओर पुलिस है, जो नागरिकों की सुरक्षा और शांति बनाए रखने के लिए निरंतर तत्पर रहती है। लेकिन इन दोनों की कार्यशैली और समय-सीमा में बड़ा अंतर है।
भारतीय न्यायालयों का कामकाज तय समय पर होता है। अदालतें सुबह एक निश्चित समय पर खुलती हैं और शाम को बंद हो जाती हैं। न्यायाधीश, वकील और न्यायालय का स्टाफ उसी समय-सीमा के भीतर अपने दायित्वों का निर्वहन करता है।
लेकिन बड़ी संख्या में लंबित मामलों (pendency), जटिल कानूनी प्रक्रियाओं, गवाहों की अनुपलब्धता और अपील प्रणाली की लंबी श्रृंखला के कारण, विवादों का निस्तारण समय पर नहीं हो पाता। इस वजह से जनता में अक्सर यह धारणा बन जाती है कि “न्याय मिलते-मिलते देर हो जाती है।”
इसके विपरीत पुलिस का कार्य किसी निश्चित समय का मोहताज नहीं है। अपराध, दुर्घटना, सामाजिक अशांति, प्राकृतिक आपदा—ये सब किसी भी समय हो सकते हैं। ऐसे में पुलिस को चौबीसों घंटे, बिना छुट्टी और बिना तय समय के, अपनी सेवाएँ देनी पड़ती हैं।
चाहे रात का अंधेरा हो, त्यौहार का दिन हो या फिर देश में संकट की घड़ी—पुलिस हर समय जनता और राष्ट्र की सेवा में खड़ी रहती है।
भारतीय जनता पुलिस से त्वरित कार्रवाई और न्यायपालिका से समय पर निर्णय की उम्मीद रखती है। लेकिन हकीकत यह है कि पुलिस पर कार्य का दबाव बहुत अधिक है और न्यायपालिका में न्यायाधीशों की संख्या व संसाधनों की कमी है।
इस कारण दोनों ही संस्थाओं पर निरंतर आलोचना होती है, जबकि वे अपनी-अपनी सीमाओं में रहकर काम करती हैं।
न्यायपालिका का काम तय समय में सीमित रहता है, जबकि पुलिस की सेवा समय की सीमाओं से परे है। दोनों की भूमिकाएँ अलग-अलग हैं, लेकिन लक्ष्य एक ही है—जनता को न्याय और सुरक्षा प्रदान करना।
इसलिए यह आवश्यक है कि हम दोनों संस्थाओं का सम्मान करें और सुधार की दिशा में सक्रिय योगदान दें।
"न्याय ठहर सकता है, पर सेवा कभी नहीं सोती।" – eDishaa
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